प्रस्तुत लेख के माध्यम से मैंने ये बताने की चेष्ठा की है कि “प्रेम” एक आलौकिक शक्ति है……..
युगांतर से ये बात लोगों के मस्तिष्क में चली आ रही कि ये आखिर प्रेम का वास्तविक स्थान क्या है ? इसकी उत्पत्ति कहाँ से है ? इसकी मनोदशा किस प्रकार की है ?
क्या ये कोई देदिव्यमान शक्ति है जिसने हमें बांध कर रखा है एक दूसरे से , या फिर क्या ये ऐसी अनोखी और असहज प्रक्रिया है जिसे हम समझ नहीं पाते , उसके मूल रूप को जिसने हमें बांध कर नही रखा है । अपितु प्रेम तो ऐसी अविरल व संतोष जनक दशा है मन की जो हमें मुक्त करती है सांसारिक वासनाओं से ,द्वेषों से,कलेशों से व अनैतिक धारणाओं से ।
प्रेम उतना भी सहज व सरल नहीं है समझना जितना हमें ज्ञात होता । प्रारम्भिक अवस्थाओं में कदाचित ये अनुमान हो जाता है मनुष्य को की उसने प्रेम रूपी साग़र को मथ कर उसमें से आलौकिक ज्ञानों की टोकड़ी को समेट लाया है । परन्तु सम्युप्रांत उसे यह भी ज्ञात हो जाता है कि ये तो प्रेम की आधारशिला मात्र भी जानकारी नहीं तब शायद वो इसके अविरल रूप को पाने को , जानने को , परखने को ललाहित होता है ।
प्रेम वास्तव में एक ऐसी दशा है काल की जिस स्थिति में प्राणी को इस बात का मूलभूत अभिज्ञान हो जाता है कि ये सृष्टि लोभ व द्वेष हित से रचित नहीं है अपितु ये सृष्टि कर्म व निष्ठा को आधार मानकर रचि गई है । और इस संरचना में जो एकमात्र सार छुपा है जिसकी आधारशिला पर ये सृष्टि फल फूल रही है वही एकमात्र सत्य “प्रेम” है ।
प्रेम दो नव युगलों का मेल ही नहीं ये तो एक अंश है जिसे हम बालपन व अल्पज्ञान की विवशता में प्रेम कहने की भूल कर बैठते हैं । प्रेम के लिए कदाचित दो वर्गों की आवश्यकता भी नहीं । प्रेम तो वास्तव में एक अभिव्यक्ति है । प्रेम निष्ठा है । प्रेम साधना है । प्रेम एक आलौकिक शक्ति जिसकी तेज़ अकल्पनीय व अतुल्य है । इसलिए इसे बस इसकदर आम लोगों की भाँति परिभाषित कर हम इसकी अवहेलना कदापि नहीं कर सकते ।
दर्शन शास्त्रियों का मानना है कि प्रेम का विकाश स्वतंत्र वातावरण की मांग करता है । प्रेम रूपी आलौकिक शक्ति की अनुभूति मात्र के लिए हमें आवश्यकता होती है एक मुक्त आकाश की ,एक संतुलित परिवेश की तभी प्रेम का जन्म सम्भव है । तथा वही प्रेम जीवनपर्यंत हमें ससक्त व सबल बनाए रखती इसका भी ज्ञान होना हमारे लिए आवश्यक है ।
प्रेम कोई रासायनिक प्रक्रिया भी नहीं जिसे हम प्रयोगशालाओं में स्वयं प्रयोग कर उसकी उत्पत्ति कर सके । ये एक अवस्था है जब देखने वाले और दिखने वाले में कोई भेद नहीं शेष रह जाता तब हम कह सकते है कि वहाँ प्रेम की उत्पत्ति हुई है । मनुष्य के सौंदर्य और प्रेम के बीच के अंतर का स्पस्टीकरण होना भी अनिवार्य है । सौन्दर्य इंसान के व्यक्तित्व को निखार देता है पर सौन्दर्य को वो बल केवल व केवल प्रेम से प्राप्त होती है ।
मोह और भक्ति इन दोनों अवस्थाओं बीच फँसा है प्रेम ।प्रेम के अस्तित्व को अंकुर मय रहने के लिए आसक्ति का होना भी लाज़मी है । वरन वो प्रेम प्रेम न रहकर भक्ति में तब्दील हो जाती है । अतः मनुष्य को मन को साधते हुए इस सत्य को स्वीकार करना होता है कि केवल अनुराग व प्रीत का होना ही न तो प्रेम को परिभाषित करता है और न ही भक्ति को । ये जितना संजिदा है इसे उतने ही संजिदगी से समझना हमारे लिए लाभकारी व फलप्रद है ।
कबीर ने अपने दोहे में लिखा है:
नेह निबाहन कठिन है, सबसे निबहत नाहि ।
चढ़बो मोमे तुरंग पर , चलबो पाबक माहि ।।
प्रेम का निर्वाह अत्यंत कठिन है। सबों से इसको निभाना नहीं हो पाता है। जैसे मोम के घोंड़े पर चढ़कर आग के बीच चलना असंभव होता है। इसलिए प्रेम को सहज व सरल समझने की भी चेष्ठा करना व्यर्थ है । आपने यदि प्रेम को पा भी लिया है, तो उससे बढ़कर चुनौती है उसके निर्वाह करने की जो आपके समक्ष आ दमकेगी। यदि आपने उसका निर्वाह कर लिया फिर समझिये आपने सृष्टि की रचि इस दैविक शक्ति का पान कर लिया है और आप ससक्त है अपनी अंतरात्मा से किसी भी सांसारिक विवधताओं का सामना करने के लिए । इस आलौकिक शक्ति का आधार ही “प्रेम” कहलाता है ।
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